दून पुस्तकालय में एक्टिंग एंड बियोंड का हुआ लोकार्पण,अभिनय से जुड़ीबातों पर फोकस

Admin

देहरादून । दून पुस्तकालय एवं शोध केंद में अभिनय की व्यवहारिक तकनीक पर आधारित सप्रसिद्ध रंगकर्मी नाट्य निर्दशक और इप्टा के राष्ट्रीय अद्ययक्ष द्वारा लिखित किताब एक्टिंग एंड बियोंड का लोकार्पण सप्रसिद्ध नाटकका लेखक राकेश , अभिनेत्री रंगकर्मी वेदा और रंगकर्मी डॉ. वी. के. डोभाल ने संयुक्त रूप में किया ।

प्रसना ने बताया कि इस पुस्तक का लेखन कुछ वर्ष पहले शुरू हुआ था, लेकिन यह आगे नहीं बढ़ पा रही थी। इसका कारण यह था कि मैं एक ऐसी पुस्तक नहीं लिखना चाहता था जो केवल तकनीकी शब्दजाल से भरी हो। मुझे तकनीकी शब्दों से चिढ़ है। वास्तव में, पूरी दुनिया अब तकनीकी शब्दजाल में उलझ चुकी है। यह पाप करने के बाद, अब दुनिया को यह एहसास हो रहा है कि हम खुद को उस प्रौद्योगिकीय विनाश से नहीं बचा सकते जिसे जलवायु संकट कहा जाता है।

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मैं रंगमंच से जुड़ा हूँ—एक ऐसा क्षेत्र जो तकनीक के ठीक विपरीत है। रंगमंच सजीव संवाद और मानवीय अभिव्यक्ति के लिए है। इस असाधारण सत्य-खोजी खेल में अभिनेता केंद्र में होता है, न कि पैसा। हम स्वचालित दुनिया के ठीक उलट हैं। लेकिन अब हमें एक तरह का बंधुआ मज़दूर बना दिया गया है, भले ही हमें अच्छा वेतन मिलता हो। हम अब एक अराजक और हिंसक डिजिटल मनोरंजन का बड़े पैमाने पर उत्पादन करने वाले मज़दूर भर रह गए हैं। इस अजीब स्थिति में, यह पुस्तक अभिनेता को फिर से सच्ची अभिनय प्रक्रिया से जोड़ने का प्रयास करती है। सच्ची अभिनय प्रक्रिया, मैं महसूस करता हूँ, केवल अभिनेताओं के लिए ही नहीं, बल्कि नागरिकों के लिए भी समान रूप से महत्वपूर्ण है। बस, दोनों इसे विपरीत दिशाओं से अपनाते हैं। अभिनेता जो एक झूठ से शुरू करते हैं, वे इसे “प्रेरित अभिनय” कहते हैं।

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इप्टा के राष्ट्रीय कार्यकारी अद्ययक्ष नाटककार राकेश वेदा ने कहा कि संवाद अदायगी का सत्य यह पुस्तक एक और महत्वपूर्ण विषय की वकालत करती है—संवाद अदायगी। संवाद तभी सत्यपूर्ण लगता है जब उसे, और वह भी केवल आवश्यक होने पर, किसी क्रिया के बाद बोला जाए। यह सिद्धांत सिर्फ़ अभिनेताओं पर ही नहीं, बल्कि नागरिकों पर भी लागू होता है। लेकिन आज हर कोई यूँ ही बोले जा रहा है, मानो सत्य सिर्फ़ शब्दों का खेल हो। इसका कारण यह है कि क्रिया, प्रेरणा, गतिविधि और उत्पादकता—ये सभी चीज़ें हमसे मशीनों ने छीन ली हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि अब यह मायने नहीं रखता कि बोले गए शब्द सत्य हैं, असत्य हैं, आवश्यक हैं या अनावश्यक। आज हर कोई बस एक दिखावटी प्रतिबद्धता में फंसकर कुछ भी बोल देता है, जो उस क्षण उसके मन में आता है।यह विशेष रूप से उन लोगों के लिए सच है जो आध्यात्मिक और राजनीतिक नेतृत्व की स्थिति में हैं।

प्रसन्ना ने कहा कि श्रम और सच्ची क्रिया कठोर सत्य मुझे तब समझ में आया जब मैंने एक ग्राम्य हथकरघा सहकारी संस्था ‘चरखा’ में श्रम किया। वहाँ मुझे एहसास हुआ कि सच्ची क्रिया के सबसे निकट श्रम ही है। मैंने यह भी जाना कि हमारे देश की लंबी और गौरवशाली आध्यात्मिक परंपरा के मूल में श्रम ही रहा है।और इस परंपरा का अंतिम प्रतिनिधि गांधीजी थे। उन्होंने यदि चरखा को ध्यानमय क्रिया का माध्यम चुना, तो अन्य संतों ने श्रम के अलग-अलग उपकरणों को अपनाया। कुछ ने भिक्षा मांगने तक को अपनाया।

प्रसन्ना ने बताया कि इस पुस्तक का रूपांतरण में मैने इस सत्य को ठीक से कहने के लिए, महसूस किया कि पुस्तक अनुभव-आधारित होनी चाहिए। इसलिए मैंने खुद को ग्लैमर सिटी मुंबई के ‘अभिनय बस्ती’ में स्थापित किया और इस पुस्तक को वहीं केंद्रित किया। मैंने इसे एक अच्छे नीयत वाले अभिनय शिक्षक और युवाओं के एक समूह के बीच संवाद के रूप में फिर से लिखना शुरू किया। तब पुस्तक आगे बढ़ी।
वहाँ मैंने खुशी भी महसूस की और दुख भी। अभिनेताओं की बस्तियों में रहना एक झकझोर देने वाला अनुभव था, लेकिन वहाँ की ऊर्जावान और संघर्षरत युवा पीढ़ी से संपर्क कर मुझे अत्यंत खुशी हुई।ये युवा गहरे और व्यक्तिगत रूप से अपनी भावनाएँ व्यक्त करना चाहते हैं। वे अभिनेता, गायक, नर्तक, लेखक—कुछ भी बनना चाहते हैं। लेकिन उनमें एक चीज़ की कमी है—सच्ची क्रिया। और इसके लिए मैं हम, बूढ़ों को जिम्मेदार मानता हूँ।

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प्रसन्ना ने कहा कि यह एक विपर्यय (पैराडॉक्स) है। हमने जीवंत रंगमंच और डिजिटल मनोरंजन के बीच का अंतर मिटा दिया। हमने इसको वह और उसको यह समझ लिया। और अब हम युवा पीढ़ी को दोष दे रहे हैं।लेकिन मुझे युवा पसंद आए। उनकी अजीब पोशाकों और व्यवहार के बावजूद, उनमें से अधिकांश सभ्य इंसान लगे। उनके अजीब फैशन और आदतें सिर्फ उनका बचकाना विरोध प्रदर्शन थीं।मैंने खुद पाँच दशकों तक मुंबई से बचने की कोशिश की क्योंकि मैं जीवंत रंगमंच से अभिनेताओं के पलायन का विरोध कर रहा था। लेकिन अब, जब मैं खुद इस बस्ती के भीतर था, तो मैंने स्थिति को और स्पष्ट रूप से देखा।

ग्लैमर का क्रूर नियम , ये युवा शिक्षित और प्रेरित हैं। लेकिन ग्लैमर इंडस्ट्री की स्थिति को देखते हुए, इनमें से अधिकांश शीर्ष तक नहीं पहुँच पाएंगे। लेकिन हाँ, वे निश्चित रूप से नीचे तक पहुँच जाएंगे। क्योंकि ग्लैमर की दुनिया का नियम यह है कि एक सुपरस्टार बनाने के लिए लाखों ‘नॉन-स्टार्स’ का निर्माण किया जाता है। ग्लैमर लॉटरी से भी बदतर है।
अभिनेताओं, अभिनय और सत्य का यह गेटोकरण (बस्तीकरण) एक राष्ट्रीय संकट से कम नहीं है। हजारों युवा अपने घरों, यहाँ तक कि अच्छी नौकरियों को छोड़कर, इस अंधकूप में आ रहे हैं। कल्पना कीजिए! यही वे युवा हैं जिन्होंने कभी महान राष्ट्रीय नेताओं को जन्म दिया था। इन्होंने हमें स्वतंत्रता दिलाई, हमारे वैज्ञानिक, शिक्षक, विद्वान और कलाकार दिए। सोचिए, अगर विवेकानंद या भगत सिंह किसी और परिस्थिति में मुंबई के ग्लैमर गेटो में चले जाते? हमने मुंबई का निर्माण किया। और मुंबई ने इस भयावह गेटो का निर्माण किया। हमने युवा पीढ़ी के हर पहलू का गेटोकरण कर दिया। अब कोई भी प्रकार की बयानबाज़ी—चाहे वह हिंदुत्व की हो, कट्टरपंथी इस्लाम की हो, या समाज-उत्तरदायित्व की, हमें इस अपराध से नही बचा सकती । राकेश वेदा इसका हिन्दी अनुवाद कर रहे हैं।

इसी के साथ प्रसन्ना और वेदा राकेश ने बच्चों के साथ एक्टिंग वर्कशॉप भी की , जिसमे विभिन्न स्कूलों के 200 बच्चों ने बहुत उत्साह से भाग लिया। खेल खेल में कैसे नाटक बनाते हैं बच्चों ने सीखा, उन्होंने कहा ऐसे प्रोग्राम और होने चाहिये। कार्यक्रम का संचालन हरिओम पाली ने किया,
कार्यक्रम में मेघा विल्सन, चंद्रशेखर तिवारी, इप्टा के प्रदेश अध्यक्ष डॉ. वी के डोभाल, बीजू नेगी, दीपू सकलानी, निकोलस,अशोक अकेला, ममता कुमार, सतीश धौलाकगन्दी, धर्मानंद लखेड़ा, गर्विता, विक्रम पुंडीर, डॉ अतुल शर्मा, जगमोहन मेहंदीरत्ता, वंशिका, गौरी, नवनीत गैरोला, कैलाश कंडवाल, और स्कूल के शिक्षक और अभिभावक मौजूद रहे ।

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