देहरादून/एच टी ब्रेकिंग डेस्क- भले ही देवभूमि की फिजाओं में सर्द हवाएं बह रही है लेकिन राजनीतिक गलियारों से गरमाते मुद्दों की तपिश से सियासत का मौसम बदल गया है। उत्तराखंड में भाजपा और कांग्रेस दोनों में ही उठापटक जारी है। भाजपा हो या कांग्रेस दोनों ही सोच समझकर चुनावी रण में अपने सैनिक उतारने की तैयारियों में जुटे हैं तो वही दावेदारी ठोकने वालों के साथ -साथ उन कार्यकर्ताओं की दिल की धड़कन भी तेज हो गई है जो कई दशकों से पार्टी का झंडा और डंडा पकड़ कर धरातल पर काम कर रहे हैं और उम्मीद लगाए बैठे हैं कि इस बार पार्टी उन्हें यह जिम्मेदारी दे सकती है। वहीं दूसरी ओर पार्टियों के बड़े नेता, सांसद और मंत्री सभी अपने नातेदारों के लिए टिकट की लॉबिंग करते नज़र आ रहे हैं। लैंसडाउन से अपनी बहु अनुकृति गोसाई को टिकट दिलाने की चाहत रखने वाले हरक सिंह रावत ने जब पार्टी के सामने आपनी इच्छा जाहिर की तो पार्टी ने उन्हें किनारे लगा दिया तो कांग्रेस ने उनकी वापसी के दरवाजे खोल दिए।
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इसी बीच एक बार फिर राजनीति में परिवारवाद का मुद्दा गर्माता नजर आ रहा है। कांग्रेस परिवारवाद के चलते राष्ट्रीय अध्यक्ष से महरूम रही तो भाजपा भी परिवारवाद से अछूती नहीं रही। दोनों ही पार्टियों के नेतागण अपने रिश्तेदारों के पॉलिटिक्स में डेब्यू की जुगत में जुटे रहे।
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ऐसे हो रही परिवार की राजनीति
- हरक सिंह रावत अपनी बहू अनुकृति गुंसाई को लैंसडाउन से दिलाना चाहते हैं टिकट
- हरदा भी अल्मोड़ा सीट से अपनी बेटी अनुपमा रावत को जमाने की करते रहे कोशिश
- नेता प्रतिपक्ष प्रीतम सिंह भी अपने बेटे अभिषेक सिंह के लिए चुनावी ताल ठोकते आए नजर
- केंद्रीय मंत्री अजय भट्ट अपनी पत्नी पुष्पा भट्ट को चुनावी मैदान में उतारने की जुगत में लगे रहे
- कैबिनेट मंत्री बंशीधर भगत अपने बेटे विकास भगत को कालाढूंगी सीट से चुनावी मैदान में उतारने की जुगत में लगे रहे लेकिन उन्हें ही मिला टिकट
- हरभजन सिंह चीमा के बेटे त्रिलोक सिंह चीमा भी करते रहे दावेदारी
- भाजपा विधायक हरबंस कपूर के निधन के बाद उनके बेटे अमित कपूर ने की दावेदारी लेकिन उनकी पत्नी सविता कपूर को मिला टिकट
- बची सिंह रावत के बेटे शशांक सिंह रावत भी ठोकते रहे दावेदारी
- पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने भी अपने बेटे सौरभ बहुगुणा को सितारगंज से चुनावी रण में उतारना चाहा
- इंदिरा हृदयेश के बेटे सुमित हृदेश को भी हल्द्वानी से मिला टिकट
कुल मिलाकर फैमिली पॉलिटिक्स के चलते कई बड़े नेता परिजनों को सत्ता में सेट करने की जद्दोजहद कर रहे हैं।
वहीं दूसरी ओर सालों से पार्टियों के लिए काम करने वाले कार्यकर्ताओं की मेहनत कहीं न कहीं अनदेखी ही की जाती है, मानो कार्यकर्ता दूध मंथन करें और मक्खन नेताओं के परिवारवाले खा जाएं। अब सवाल ये उठता है कि आखिर ऐसी परिवार की राजनीतिक कब तक इन कार्यकर्ताओं के हक को मारती रहेगी ?