उत्तराखंड की लोक संस्कृति का प्रतीक है ईगास, पहाड़ो में दीपावाली मनाने की परंपरा सदियों से चली आ रही है।

रिपोर्ट-दीपिका गौड़

उत्तराखंड की लोक संस्कृति का प्रतीक है ईगास, दीपावाली मनाने की परंपरा जो सदियों से पहाड़ो में चली आ रही है, अब देहरादून में होने जा रहा है 4 नवंबर 2022 को ईगास का अयोजन

पहाड़ो में बग्वाल, दीपावाली के ठीक 11 दिन बाद ईगास मनाने की परंपरा सदियों से प्रचलित है। दरअसल, रोशनी का प्रतिक दीपावाली का पर्व पहाड़ो में इसी दिन मनाया जाता है, इसलिए उत्तराखंड में पर्वों की इस शृंखला को ईगास-बग्वाल का नाम दिया गया है।  

 

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पौराणिक मान्यताओं के अनुसार श्रीराम के वनवास से अयोध्या लौटने पर लोगों ने कार्तिक कृष्ण अमावस्या को दीये जलाकर उनका स्वागत किया था। लेकिन, गढ़वाल क्षेत्र में श्रीराम के लौटने की सूचना दीपावली के ग्यारह दिन बाद कार्तिक शुक्ल एकादशी को मिली थी। जिस कारण पहाड़ों में दीपावली के 11 दिन बाद ईगास दीपावाली के रूप में मनाई जाती है।

भैलो खेलना माना जाता है शुभ और साथ ही है मुख्य आकर्षण का केंद्र

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ईगास-बग्वाल के दिन आतिशबाजी के बजाय भैलो खेलने की परंपरा पहाड़ों में सदियों से निभाई जाती है। खासकर बड़ी बग्वाल के दिन यह मुख्य आकर्षण का केंद्र बन जाता है। भैलो खेलने की परंपरा पहाड़ में सदियों पुरानी है। भैलो को चीड़ की लकड़ी और तार या रस्सी से तैयार किया जाता है।
रस्सी में चीड़ की लकड़ियों की छोटी-छोटी गांठे बांधी जाती है। जिसके बाद गांव के ऊंचे स्थान या खुली जगह पर पहुंच कर लोग भैलो को आग लगाते हैं। इसे खेलने वाले रस्सी को पकड़कर तथा सावधानीपूर्वक उसे अपने सिर के ऊपर बाएं से दाएं ओर घुमाते हुए नृत्य करते हैं। इसे ही भैलो खेलना कहा जाता है। मान्यता है कि ऐसा करने से मां लक्ष्मी सभी के कष्टों को दूर करने के साथ सुख-समृद्धि से भरपूर रखती है। भैलो खेलते हुए कुछ लोकगीत, हँसी -मजाक करने की परंपरा भी है। 

 

लोक संस्कृति के संरक्षण का है संदेश

देवभूमि उत्तराखण्ड की राजधानी देहरादून में 4 नवंबर 2022 को ईगास कार्यक्रम का आयोजन होने जा रहा है। जिसमें कि लोक संस्कृति के संरक्षण के प्रति लोगों को जागरूक किया जाएगा। जिससे आने वाली पीढ़ी को उत्तराखंड की संस्कृति से रूबरू किया जा सके।

 

 

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